Sunday, February 16, 2020

खैयाम की मधुशाला

खैयाम की मधुशाला
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खैयाम की मधुशाला पर महाकवि बच्चन के विचार
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
(
तीसरे संस्करण की)
आज लगभग बारह बरस हुए जब मैंने फ़िट्ज़जेरल्ड के ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ के पहले संस्करण का उल्था हिन्दी में किया था। लगभग दस बरस इसको छपे हुए भी हो चुके हैं। उसके पहले संस्करण के साथ ही अपने अनुवाद, फ़िट्ज़जेरल्ड के अंग्रेज़ी रूपान्तर और उमर ख़ैयाम के बारे में मैं कुछ कहना चाहता था, लेकिन दूसरे संस्करण के साथ भी इसकी नौबत न आई। भूमिका रूप में कुछ लिखा हुआ मेरे पास बहुत दिन से पड़ा था, इधर मैंने कुछ और किताबों से भी मसाला इकट्ठा कर लिया था। भला हो नए पेपर कंट्रोल आर्डर का, किताब का संस्करण खत्म हुए दो साल से ऊपर हो गया था और प्रेस वाले कान में तेल डालकर बैठे हुए थे। नए संस्करण की प्रेस-कापी तैयार करके मैं भेज भी देता तो उसके जल्दी छपने की कोई सूरत नहीं थी। किताब के जल्दी न छप सकने पर मन में कुढ़ते हुए भी प्रेस-कापी तैयार करने के लिए जो मुझे मनमाना समय मिला, उसका मैंने स्वागत ही किया। और इस तरह आराम के साथ मैं यह भूमिका और टिप्पणी लिख सका। अगर इनमें मेरे पाठकों को कुछ काम की बात मिले तो उसके लिए उन्हें इस नए पेपर कंट्रोल आर्डर को ही धन्यवाद देना चाहिए।

उमर ख़ैयाम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़ैयाम का नाम मैंने आज से लगभग पच्चीस बरस हुए तब जाना था। उस समय मैं वर्नाक्यूलर अपर प्राइमरी के तीसरे या चौथे दरजे में रहा हूँगा। हमारे पिता जी ‘सरस्वती’ मँगाया करते थे। पत्रिका के आने पर मेरा और मेरे छोटे भाई का पहला काम यह होता था कि उसे खोलकर उसकी तसवीरों को देख डालें। उन दिनों रंगीन तसवीर एक ही छपा करती थी, पर सादे चित्र, फोटो इत्यादि कई रहते थे। तसवीरों को देखकर हम बड़ी उत्सुकता से उस दिन की बाट देखने लगते थे जब पिता जी और उनकी मित्र मंडली इसे पढ़कर अलग रख दें। ऐसा होते-होते दूसरे महीने की ‘सरस्वती’ आने का समय आ जाता था। उन लोगों के पढ़ चुकने पर हम दोनों भाई कैंची और चाकू लेकर सरस्वती देवी के साथ इस तरह जुट जाते थे जैसे मेडिकल कॉलिज के विद्यार्थी मुर्दों के साथ। एक-एक करके सारी तसवीरें काट लेते थे। तसवीरें काट लेने के बाद पत्रिका का मोल हमको दो कौड़ी भी अधिक जान पढ़ता। चित्रों के काटने में जल्दबाज़ी करने के लिए, अब तक याद है, पिता जी ने कई बार गोशमाली भी की थी।

उन्हीं दिनों की बात है, किसी महीने की ‘सरस्वती’ में एक रंगीन चित्र छपा था; एक बूढ़े मुसलमान की तस्वीर थी, चहरे से शोक टपकता था; नीचे छपा था-उमर ख़ैयाम। रुबाइयात के किस भाव को दिखाने के लिए यह चित्र बनाया गया था, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता क्योंकि इस समय चित्र की कोई बात याद नहीं है सिवा इसके कि एक बूढ़ा मुसलमान बैठा है और उसके चेहरे पर शोक की छाया है। हम दोनों भाइयों ने चित्र को साथ ही साथ देखा और नीचे पढ़ा ‘उमर ख़ैयाम’। मेरे छोटे भाई मुझसे पूछ पड़े, ‘‘भाई, उमर ख़ैयाम क्या ?’ अब मुझे भी नहीं मालूम था कि उमर ख़ैयाम के क्या माने हैं। लेकिन मैं बड़ा ठहरा, मुझे अधिक जानना चाहिए, जो बात उसे नहीं मालूम है वह मुझे मालूम है, यही दिखाकर तो मैं अपने बड़े होने की धाक उस पर जमा सकता था। मैं चूकने वाला न था। मेरे गुरु जी ने यह मुझे बहुत पहले सिखा रखा था कि चुप बैठने से ग़लत जवाब देना अच्छा है। मैंने अपनी अक्ल दौड़ाई और चित्र देखते ही देखते बोल उठा, ‘‘देखो, यह बूढ़ा कह रहा है-उमर ख़ैयाम, जिसके अर्थ हैं, ‘उमर खत्याम’ अर्थात् उमर खतम होती है, यही सोचकर बूढ़ा अफ़सोस कर रहा है।’’ उन दिनों संस्कृत भी पढ़ा करता था; ‘ख़ैयाम’ में कुछ ‘क्षय’ का आभास मिला होगा और उसी से कुछ ऐसा भाव मेरे मन में आया होगा। बात टली, मैंने मन में अपनी पीठ ठोंकी, हम और तसवीरों को देखने में लग गए।

पर छोटे भाई को आगे चलकर जीवन का ऐसा क्षेत्र चुनना था जहाँ हर बात को केवल ठीक ही ठीक जानने की ज़रूरत होती है, जहाँ कल्पना, अनुमान या क़यास के लिए सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं है। लड़कपन से ही उनकी आदत हर बात को ठीक-ठीक जानने की ओर रहा करती थी। उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ कि मैं बेपर की उड़ा रहा हूँ। शाम को पिता जी से पूछ बैठे। पिताजी ने जो कुछ बतलाया उसे सुनकर मैं झेंप गया। मेरी झेंप को और अधिक बढ़ाने के लिए छोटे भाई बोले उठे, ‘‘पर भाई तो कहते हैं कि वह बूढ़ा कहता है कि उमर खतम होती है-उमर ख़ैयाम यानी उमर खत्याम।’’ पिता जी पहले तो हँसे, पर फिर गम्भीर हो गए; मुझसे बोले, ‘‘तुम ठीक कहते हो, बूढ़ा सचमुच यही कहता है।’’ उस दिन मैंने यही समझा कि पिता जी ने मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह दिया है, वास्तव में मेरी सूझ ग़लत थी।

उमर ख़ैयाम की वह तसवीर बहुत दिनों तक मेरे कमरे की दीवार पर टँगी रही। जिस दुनिया में न जाने कितनी सजीव तसवीरें दो दिन चमककर खाक में मिल जाती हैं उसमें उमर खैयाम की निर्जीव तसवीर कितने दिनों तक अपनी हस्ती बनाए रख सकती थी। किसी दिन हवा के झोंके या नौकर की झाड़ू से रद्दी काग़जों की टोकरी में गिर गई होगी और वहाँ से कूड़ेखाने में पहुँचकर सड़-गल गई होगी। उमर ख़ैयाम की तसवीर तो मिट गई पर मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गई। उमर ख़ैयाम और उमर खतम होती है, यह दोनों बातें मेरे मन में एक साथ जुड़ गईं। तब से जब कभी भी मैंने ‘उमर ख़ैयाम’ का नाम सुना या लिया, मेरे हृदय में वही टुकड़ा ‘उमर खतम होती है’ गूँज उठा। यह तो मैंने बाद को जाना कि अपनी ग़लत सूझ में भी मैंने इन दो बातों में एक बिलकुल ठीक सम्बन्ध बना लिया था।
बहुत दिनों के बाद एकाएक फ़िट्ज़जेरल्ड की ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ पढ़ते हुए मेरी नज़र इन सतरों पर ठहर गई:

Oh, Come with old Khayyam, and leave the wise
To talk : One thing is certain, that life flies:
One thing is certain, and the Rest is lies:
The Flower that has blown for ever dies.

(26वीं रुबाई)

Life Flies= उमर खतम होती है। उमर ख़ैयाम को केवल एक बात का निश्चय है कि उमर खतम होती है। मुझे अपने लड़कपन की बात याद आ गई, क्या उमर ख़ैयाम के इस मूल निश्चय पर इतने दिनों पहले मैं अपनी स्वाभाविक सूझ से पहुँच गया था ? क्या उस दिन पिता जी के कानों में यही लाइन- One thing is certain, that Life flies गूँज उठी थी जो उन्होंने मुझसे कहा था कि, हाँ, यह बूढ़ा सचमुच यही कहता है कि उमर खतम होती है ? तब तो उमर खैयाम का अर्थ समझने में मैं सच से बहुत दूर न था। इस प्रकार उमर खैयाम का नाम और उसका मूल सिद्धान्त आज से पच्चीस बरस पहले मेरे मन में अपनी जड़ जमा चुका था। साथ ही साथ उमर ख़ैयाम की कविता के साधारण वातावरण का भी कुछ कुछ आभास मुझे मिल चुका था। वह इस प्रकार-

पिता जी ने उमर ख़ैयाम के बारे में केवल इतना बतलाया था कि यह फ़ारसी का एक कवि है। इसने अपनी कविता रुबाइयों में लिखी है जैसे तुलसीदास ने चौपाइयों में। रुबाई का शाब्दिक अर्थ ही चौपाई है। पिता जी ने कितनी बारीकी से यह बात बता दी थी, अब समझ में आता है। ‘उमर ख़ैयाम’ की ध्वनि का अर्थ जैसे अपने आप ही मेरे मन में बैठ गया था, उसी तरह ‘रुबाई शब्द’ का भी हुआ। मुझे यह ‘रुबाई’ शब्द, ‘रोवाई’ शब्द का भाई-सा जान पड़ा-हम अपने घरों में बोली जाने वाली अवधी में खड़ी बोली के ‘रुलाई’ शब्द को ‘रोवाई’ कहते हैं। मुझे ऐसा लगा जैसे रुबाइयों में उमर ख़ैयाम का रोना होगा। कोई ऐसी बात कही गई होगी जिससे कवि का शोक, विषाद प्रकट होता होगा। पर मैंने इसे ज़ाहिर न होने दिया। दूध का जला मट्ठा भी फूँक-फूँककर पीता है। एक बार लजा चुका था, अपनी और हँसी नहीं कराना चाहता था। लेकिन मन में रुबाइयों के लिए जो धारणा बन गई थी वह तो बनी ही रही। इस मनोरंजक घटना के सात-आठ बरस बाद जब मैंने उमर खैयाम की रुबाइयों को पहली बार पढ़ा, तो मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने उनमें किसी रोदन, किसी वेदना या किसी निराशा की प्रत्याशा करते हुए पढ़ा था। मेरी यही प्रत्याशा कहाँ तक पूरी हुई होगी इसे ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ का हरेक पाठक अपने आप समझ सकता है। मुमकिन है, यहाँ मेरी बात काटकर कुछ लोग मुझसे अपनी असहमति जताएँ। साधारण जनता के बीच, और इसमें प्रायः ऐसे लोग अधिक हैं जिन्होंने उमर खैयाम की कविता स्वयं नहीं पढ़ी, बस यदा-कदा दूसरों से उसकी चर्चा सुनी है, या कभी उसके भावों को व्यक्त करने वाले चित्रों को उड़ती नज़र से देखा है, कवि की एक और ही तसवीर घर किए हुए है। उनके ख़याल में उमर खैयाम आनन्दी जीव है, प्याली और प्यारी का दीवाना है, मस्ती का गाना गाता है, सुखवादी है या जिसे अंग्रेज़ी में ‘हिडोनिस्ट’ या ‘एपीक्योर’ कहेंगे। इतिहासी व्यक्ति उमर खैयाम ऐसा ही था या इससे विपरीत, इस पर मुँह खोलने का मुझे हक़ नहीं है। फ़ारसी की रुबाइयों में उमर ख़ैयाम का जो व्यक्तित्व झलका है, उस पर अपनी राय देने का मैं अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि फ़ारसी का मेरा ज्ञान बहुत कम है, लेकिन, एडवर्ड फ़िट्ज़जेरल्ड ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने अंग्रेज़ी तरजुमे के अन्दर उमर खैयाम का जो खाका खींचा है उसके बारे में बिना किसी संकोच या सन्देह के मैं कह सकता हूँ कि वह किसी सुखवादी आनन्दी जीवन अथवा किसी हिडोनिस्ट या ‘एपीक्योर’ का नहीं है।

इन रुबाइयों का लिखने वाला वह व्यक्ति है जिसने मनुष्य की आकांक्षाओं को संसार की सीमाओं के अन्दर घुटते देखा है, जिसने मनुष्य की प्रत्याशाओं को संसार की प्राप्तियों पर सिर धुनते देखा है, जिसने मनुष्य के सुकुमार स्वप्नों को संसार के कठोर सत्यों से टक्कर खाकर चूर-चूर होते देखा है। इन रूबाइयों के अन्दर एक उद्विग्न और आर्त आत्मा की पुकार है, एक विषण्ण और विपन्न मन का रोदन है, एक दलित और भग्न हृदय का क्रन्दन है। संक्षेप में कहना चाहें तो यह कहेंगे कि रुबाइयात मनुष्य की जीवन के प्रति आसक्ति और जीवन की मनुष्य के प्रति उपेक्षा का गीत है-रुबाइयों का क्रम जैसा रक्खा गया है उससे वे अलग-अलग न रहकर एक लम्बे गीत के ही रूप में हो गई हैं। यह गीत जीवन-मायाविनी के प्रति मानव का एकांतिक प्रणय निवेदन है। पर कौन सुनता है ? वह अपना क्रोध-विरोध प्रकट करता है-पर उसे हार ही माननी पड़ती है। मानव की दुर्बलता, उसकी असमर्थता, उसकी परवशता, उसकी अज्ञानता और उसकी लघुता के साथ उसका दम्भ, उसका क्रोध-विरोध और उसकी क्रान्ति उसे कितना दयनीय बना देती है ! रुबाइयात सुख का नहीं दुख का गीत है, सन्तोष का नहीं असन्तोष का गान है। अंग्रेज़ी लेखक जी.के. चेस्टरटन ने लिखा है कि Omar`s Philosophy is not the Philosophy of happy people but of unhappy people. अर्थात् उमर ख़ैयाम की फ़िलासफ़ी सुखियों की फ़िलासफ़ी नहीं दुखियों की फ़िलासफ़ी है। और क्या ऐसा भी है कि मनुष्य हो और दुखी न हो ? सदा नहीं तो कम से कम एक समय, और तब वह अवश्य उमर ख़ैयाम के विचारों की ओर खिंच जाता है। उमर खैयाम की रुबाइयों को पढ़कर मुझे अपनी स्वाभाविक बुद्धि पर आश्चर्य था, जिसने उनमें निहित विचारों की छाया ‘रुबाई’ शब्द में ही देख ली थी।

रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ को पहले पहल फ़िट्ज़जेरल्ड के अनुवाद से पढ़ने का भी एक विशेष अवसर था सम्भवतः 1925-26 की बात थी। उस समय मैं गवर्नमेंट इंटरमीडियट कॉलिज, प्रयाग, में एफ.ए. क्लास में पढ़ता था। उन दिनों कॉलिज में एक लिटरेरी सोसाइटी थी। इस समिति की ओर से महीने में दो बार, हर दूसरे शनिवार को, व्याख्यान तथा वाद-विवाद हुआ करते थे जिसमें कॉलिज के अध्यापक तथा विद्यार्थी सभी भाग लिया करते थे। एक दिन हमारी समिति के मन्त्री श्रीयुत ब्रजकुमार नेहरू की ओर से यह सूचना मिली कि अमुक शनिवार को श्रीयुत शिवनाथ काटजू ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ पर अपना लेख सुनाएंगे। श्रीयुत शिवनाथ काटजू प्रयाग के प्रसिद्ध एडवोकेट डॉ. कैलाशनाथ काटजू के सुपुत्र हैं। उस समय आप मेरे सहपाठी थे। शिवनाथ जी के लेख को समझने के लिए ही मैंने ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ को पढ़ने की जल्दी की। रुबाइयात में जो कुछ पाने की आशा मैंने की थी। वही मुझको मिली। रुबाइयात पढ़कर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे हृदय में एक वृक्ष उग आया जिसके बीज उससे सात-आठ साल पहले पड़ चुके थे। शिवजी-हम क्लास में उन्हें इसी नाम से पुकारते थे-के लेख ने इस वृक्ष में पहले पानी का काम किया।

रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ के उस पहले पाठ से ही मैंने उसका रूपान्तर करना आरम्भ किया या अगर मैं अधिक सच्चाई से काम लूँ तो कहूँगा कि उस प्रथम पाठ से ही मेरे मन में उसका अनुवाद होना शुरू हुआ। यह एक स्वाभाविक बात है कि जब हम किसी अन्य भाषा को सीखना आरम्भ करते हैं तो जो कुछ हम उसमें पढ़ते हैं उसे समझने को हम मन ही मन अपनी भाषा में उसका अनुवाद करते जाते हैं। एफ.ए. पास करके बी.ए. में पहुँचा, बी.ए.पास करके एम.ए. में; बहुत कुछ पढ़ना था, यदा-कदा रुबाइयात पर भी नज़र दौड़ा ली, पर अभी तक उमर खैयाम की कविता का मेरा ज्ञान केवल शाब्दिक था। कविता का अर्थ मैं जानता था, परन्तु किसी कविता के अर्थ को समझ लेना उसे समझने के कार्य का सबसे सरल भाग है। शब्दों के पर्दे को उठाकर कवि की भावनाओं को हृदयंगम करना कठिन काम है। साधारण ज्ञान और बुद्धि रखनेवाला मनुष्य भी कठिन से कठिन कविता के शाब्दिक अर्थ को प्रयत्न करने से जान सकता है, परन्तु भावनाओं को समझने के काम में बुद्धि और ज्ञान कुछ भी काम नहीं देते। किसी कविता का अर्थ तटस्थ रहकर भी जाना जा सकता है पर भावनाओं को समझाने के लिए अपने को कवि के साथ एक करना पड़ता है। साहित्य को समझने के लिए जीवन के अनुभव की आवश्यकता होती है। कविताएँ पढ़ाते समय मैं अपने विद्यार्थियों से अक्सर कहता हूँ कि अभी तुम कविताओं का अर्थ समझ लो, इनके भावों को तुम तब समझोगे जब जीवन के अनुभवों से भीगोगे। मेरे लिए जीवन के अनुभवों से भीगने का अवसर भी आ गया। 1930 के सत्याग्रह आन्दोलन में मैंने यूनिवर्सिटी छोड़ दी और उसके पश्चात् जीवन में जो भीषण तूफ़ान आया और मेरे विचारों और भावनाओं में जो प्रबल उथल-पुथल मची उसने मुझे ठीक उस मनःस्थिति में रख दिया जिसमें रुबाइयात उमर खैयाम मेरे प्राणों की प्रतिध्वनि हो गई। एक-एक रुबाई ऐसी मालूम होने लगी जैसे मेरे लिए ही लिखी गई हो। अब जब उन्हें मैं स्वयं पढ़ता या किसी को सुनाता तो उसमें अन्तर्निहित भावनाओं से मेरा हृदय सहज ही द्रवित, परिप्लावित और प्रोच्छ्वसित होने लगता। उफ़, क्या दिन थे वे भी !

ऐसी मनोदशा में आने के पूर्व मैंने कभी ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ का रुपान्तर करने की बात मन में सोची ही न थी। पर अब तो उसका अनुवाद मेरे मन से उमड़ा पड़ता था। मैंने इस कार्य के लिए 4 जून, 1933 को लेखनी उठाई और 15 जून, सन् 1933 को रख दी। इतने दिनों के बीच मैंने बाहर की एक बारात की, और तीन दिन बीमार रहा। अर्थात् ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ का यह रूप उपस्थित करने में मेरे सात दिन लगे जिनमें मैंने प्रतिदिन चार-पाँच घंटे की औसत से काम किया। यद्यपि यह काम केवल सात दिन में समाप्त हो गया पर इसे करते हुए मुझे ऐसा लगा कि इसमें मेरे सात बरस की मेहनत लगी है। रूपान्तर करते समय मुझे आभास हुआ कि जैसे पिछले सात बरसों में किया हुआ प्रत्येक पाठ और उसकी प्रतिक्रिया कुछ न कुछ सहायता दे रही है। लोग मुझसे अक्सर पूछते थे कि अनुवाद में कितने दिन लगे और मैं निःसंकोच कहता था कि सात बरस। मेरा मन साफ़ है कि उनसे झूठ नहीं कहता था।

हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के देखते रहने के कारण यह तो मुझे मालूम था कि साहित्यकारों का ध्यान उमर ख़ैयाम की कतिपय रुबाइयों की ओर जा रहा है परन्तु अपने जीवन के तूफ़ानी दिनों में जब पहले पहल उमर ख़ैयाम की सारी रुबाइयों को रुपान्तरित करने की बात मेरे मन में आई, उस समय मुझे यह नहीं ज्ञात था कि अन्य लोग अपने अनुवादों को पूरा करके पुस्तकाकार छपाने की आयोजना कर रहे हैं। मुझे जीवन से अवकाश मिले कि मैं कलम लेकर जो कुछ हृदय में हिलोरें मार रहा है उसे कागज़ पर उतारूँ कि बाबू मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद सन् 1931 में प्रकाशित हो गया1 और साल भर के बाद ही पंडित केशव प्रसाद पाठक का अनुवाद।2 यह दोनों अनुवाद जिस ठाट-बाट और जिस आन-बान से निकले थे उसे देखकर यदि मेरे मन में अपने अनुवाद को पूरा करके इनकी प्रतियोगिता में रखने की बात होती तो उसे उसी समय ठंडी पड़ जानी चाहिए थी। मुझ अज्ञात लेखक का अनुवाद कौन प्रकाशित कर सकता था। 1932 में मेरी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हो चुका था पर उसके लिए मुझे जो दौड़-धूप करनी पड़ी थी और जिन लज्जास्पद शर्तों पर मुझे उसे प्रकाशक को देना पड़ा था, उसका कड़ुआ पाठ मैं अभी न भूला था। अनुवाद तो मेरे कंठ से, मैं फिर कहूँगा, फूटा पड़ता था और मेरे लिए अब उसे रोकना असम्भव था। उमर ख़ैयाम की रुबाइयों के प्रति मेरी प्रतिक्रिया अपनी थी, मेरी लय अपनी थी, मेरी ध्वनि अपनी थी, मेरी अनुवाद की धारणा अपनी थी, विधि अपनी थी, और इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण इसे आरम्भ करने की प्रेरणा अपनी थी। बस, मैं काम में लग गया।

उमर ख़ैयाम की रुबाइयों को हिन्दी में उपस्थित करने में रहदेखाव का काम किसने किया इसे मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। पर न जाने कैसे मेरी स्मृति में यह बात टँकी हुई है कि पहला अनुवाद जो मैंने उमर खैयाम की रुबाइयों का देखा वह स्वर्गीय पंडित सूर्यनाथ तकरू द्वारा किया गया था और सम्भवतः ‘प्रभा’ में प्रकाशित हुआ था, अपना अनुवाद करते समय मैंने उन्हें इस विषय में पत्र लिखा था। परन्तु वे बीमार थे। उन्होंने मुझे उत्तर तो दिया पर कोई बात उससे स्पष्ट न हो सकी। बाबू मैथिलीशरण गुप्त ने अपने पूर्व किसी सज्जन के प्रयास की चर्चा अपनी भूमिका में की है; सम्भव है उनका तात्पर्य उन्हीं से हो। झालरापाटन के पंडित गिरिधर शर्मा नवरत्न का किया हुआ रुबाइयात उमर ख़ैयाम का अनुवाद3 मैंने अपना अनुवाद पूरा करने का बाद देखा। उसकी प्रकाशन तिथि सन् 1931 दी हुई है। इसके दो वर्ष पहले वे खैयाम की रुबाइयों का संस्कृत अनुवाद भी प्रकाशित करा चुके थे। उनका अपना छन्द है, और अन्य लोग भी अनुवाद कर रहे हैं इससे वे अनभिज्ञ मालूम होते हैं। विज्ञापन न होने से उनके इस अनुवाद से अन्य अनुवादक अनभिज्ञ हैं। 1932 में ही पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र का अनुवाद4 प्रकाशित हुआ, पर उसे भी मैंने बाद को देखा। उन्होंने बाबू मैथिलीशरण गुप्त और मुंशी इक़बाल वर्मा ‘सेहर’ के अनुवाद से अपना परिचय प्रकट किया है। 1933 में डॉक्टर गयाप्रसाद गुप्त का अनुवाद5 प्रकाशित हुआ। यह बंगला के किसी अनुवाद का भाषान्तर है। 1935 में
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1. प्रकाश पुस्तकालय, कानपुर।
2. इंडियन प्रेस लिमिटेड, जबलपुर।
3. नवरत्न-सरस्वती भवन, झालरापाटन।
4. मेहता पब्लिशिंग हाउस, सूत टोला, काशी।
5. हिन्दी साहित्य भंडार, पटना।
मेरा अनुवाद प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व किसी समय लखनऊ जाने पर वहाँ के पंडित ब्रजमोहन तिवारी का, जिन्होंने ‘झलक’ नाम से हिन्दी में सानेटों का एक संग्रह प्रकाशित किया है, अनुवाद मैंने सुना। प्रकाशित हुआ या नहीं, इसका मुझे पता नहीं। इसी के कुछ दिन बाद ‘सैनिक’ आगरा, में किसी सज्जन का अनुवाद प्रकाशित होता रहा, वह भी पुस्तक रूप में छपा या नहीं, मुझे नहीं मालूम। 1937 में मुंशी इक़बाल वर्मा ‘सेहर’ का अनुवाद1 प्रकाशित हुआ, यह मूल फ़ारसी से किया गया है और इस पर उन्होंने कई बरसों से परिश्रम किया था। 1938 में श्रीयुत रघुवंश लाल गुप्त का अनुवाद2 प्रकाशित हुआ। 1939 में जोधपुर के श्रीयुत किशोरीरमण टंडन ने एक अनुवाद करके मेरे पास भेजा, पर वह अभी अप्रकाशित है। पंडित जगदम्बा प्रसाद ‘हितैषी’ ने बहुत दिनों से रुबाइयात उमर खैयाम के ऊपर काम किया है और उनकी पुस्तक ‘मधुमन्दिर’ के नाम से प्रकाशित होने वाली है। मैंने यह भी सुना है कि पंडित सुमित्रानन्दन पन्त का किया हुआ एक अनुवाद इंडियन प्रेस में रखा है, पता नहीं कब प्रकाशित होगा।3

ख़ैयाम की कविता के प्रति जो मेरी प्रतिक्रिया थी वह एक समय मुझे निजी मालूम हुई थी ! पर इन प्रकाशनों की तिथियों पर ग़ौर करने से पता लगेगा कि जैसे देश-काल में कुछ ऐसा वातावरण था कि दूर-दूर बैठे हुए लोगों ने भी लगभग एक ही समय में खैयाम को हिन्दी में उपस्थित करने की बात सोची। जिस तरह मैंने ऊपर कहा कि व्यक्ति के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वह उमर खैयाम की विचारधारा की ओर स्वयं खिंच जाता है क्या इसी तरह देश के जीवन में भी ऐसा समय आता है जब वह इस प्रकार की कविता सुनने को आतुर-आकुल हो उठता है ?

उत्तर है, हाँ। ऐसा ही था 1930 का वह समय। आँधी आने के पूर्व की शान्ति मैं बैठा हुआ क्रान्तिकारी दल एक ऐसा षड्यन्त्र रच रहा था कि जिसके द्वारा वह विदेशी शासन के सम्पूर्ण दुःख संकटमय यन्त्र को पकड़कर चकनाचूर कर डाले और हृदय के स्वप्नों के अनुकूल एक नए ही विधान का निर्माण करे। सहसा हमारे देश के ऊपर वेग से बहता हुआ एक तूफान यह घोषणा कर चला, ‘जागो, इधर सरदार भगतसिंह ने असेंबली भवन के अन्दर बम फेंक दिया और जिससे हमारी गुलामी की ज़ंजीरें उड़ गई हैं और उधर महात्मा गांधी ने अपने चरखे के तागे से ब्रिटिश सत्ता की सुलतानी मीनार को फँसा लिया है। माँ के लाड़लों ! उठो देश-प्रेम की मदिरा पीकर मैदान में आ जाओ, देर करने से मौक़ा हाथ से निकल जाएगा।’ नौजवान ने सिर पर कफ़न बाँधा और अपनी प्रेयसी से बोला, ‘मानिनी, विलम्ब करना व्यर्थ है, मुझे थोड़ी ही देर ठहरना है, सम्भवतः यह हमारा अन्तिम मिलन हो।’ देश की पुकार तेज़ होती जा रही थी, वह अपने हृदय की पुकार न सुन सका। युवक, युवतियाँ, यहाँ तक कि बच्चे भी बानर सेना बनाकर, निकल पड़े। हमारी आँखों में एक अनोखी मस्ती थी, दिलों में एक अजीब जोश था, दिमाग़ों में एक नई ज़िन्दगी का सपना था। हमारी आशा की लहरों ने आकाश छू लिया। सरकार ने नियति की दृढ़ता, कठोरता और निर्ममता से हमारा दमन आरम्भ किया। न दलील, न अपील, न वकील। उसने हमारे नेताओं को पकड़-पकड़कर शतरंज के मोहरों की तरह जेल में डालना शुरू किया। पर हम निरुत्साह नहीं हुए। सरकार को हमारी शक्ति का पता लगा। डांडी यात्रा के विद्रोही चरणों का वायसराय की कोठी में स्वागत हुआ। महात्मा गांधी राउंड टेबिल कान्फ्रेंस में गए। पर यह सब बाहरी तमाशा था। ब्रिटिश नीति ऐसा घूँघट मारकर बैठी थी कि उसे उठाकर उससे बोलना असम्भव था। इधर लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी लार्ड वेलिंगडन ने आर्डिनेंस राज फैला दिया और गांधीजी हिन्दुस्तान में आते ही गिरफ्तार कर लिए गए। राष्ट्रीय आन्दोलन बिलकुल कुचल दिया गया और सर सेमुएल होर ने गांधी जी की गिरफ्तारी पर गर्व से कहा कि एक कुत्ता भी नहीं भौंका सरकार की कूटनीति ने जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम दंगे करा दिए। और इस प्रकार मर्दित, दलित, विभाजित और पराजित देश के ऊपर ‘ह्वाइट पेपर’ का विधान लाद लिया गया। हम इसे ‘कोरा कागद’ कहकर हँसे, पर हमें उसी को स्वीकार करना पड़ा ! और भारत को अंग्रेज़ों द्वारा पूर्व दृढ़ निश्चित पथ पर ही आगे बढ़ना पड़ा। उसकी जाज्वल्यमान आशाएँ, जिनपर उसने न जाने कितने दिनों से आँख लगा रक्खी थी, सब की सब, राख बनकर न जाने किस ओर गईं। स्वतन्त्रता का बीज बोने का जो उसने श्रम-यत्न किया था उसके फलस्वरूप उसकी आँखों में आँसू थे और उसके कंठ में उच्छ्वास। नियति ने भारत की भालशिला पर जो लेख लिख दिया था उसका एक अक्षर भी भारत के शत-शत आँसुओं की धारा से न धुल सका। ऐसा था वह नैराश्यपूर्ण समय और ऐसी थीं वह शोकजनक परिस्थितियाँ जिनमें देश के कोने-कोने से उमर खैयाम की वाणी प्रतिध्वनित हुई। यह बड़ी रोचक खोज होगी कि भारत की अन्य भाषाओं में खैयाम के अनुवाद कब हुए। निश्चय के साथ तो मैं नहीं कह सकता पर मेरा अनुमान है कि वे भी सब इसी समय के आस-पास हुए होंगे।

1. इण्डियन प्रेस, प्रयाग।
2. किताबिस्तान, प्रयाग।
3. 1948 में ‘मधुज्वाल’ के नाम से भारती भंडार, प्रयाग द्वारा प्रकाशित।

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